प्रागैतिहासिक कला केंद्र — विस्तृत अध्ययन (UP TGT/PGT उपयोगी)
प्रागैतिहासिक शैलचित्रों के प्रमुख स्थल, तकनीक, विषय और संरक्षण — परीक्षा तथा संदर्भ के लिए संकलित
सारांश (Abstract)
प्रागैतिहासिक कला भारत में प्रागैतिहासिक मानव की जीविकोपार्जन, धार्मिक गतिविधियों और सामाजिक संगठन की वेदना-मानचित्र प्रस्तुत करती है। ये चित्र शैलाश्रयों और चट्टानों पर प्राकृतिक रंगों के माध्यम से बनाए गए हैं। इस अध्ययन में प्रमुख स्थल, रंग-तकनीक, विषय, कालक्रम, सामाजिक अर्थ और संरक्षण की चुनौतियाँ समेटी गई हैं।
1. प्रागैतिहासिक काल का परिचय
प्रागैतिहासिक काल वह अवधि है जब मानव ने लिखित भाषा विकसित नहीं की थी; इसकी जानकारी हमें पाषाणोपरायिक अवशेषों, औजारों और शैलचित्रों से मिलती है। भारतीय प्रागैतिहासिक चित्रकला का काल पुरापाषाण (Paleolithic), मध्यपाषाण (Mesolithic) और नवपाषाण (Neolithic) काल तक फैला हुआ है। इन कालों में जीवनशैली, माध्यम और थीम में क्रमिक परिवर्तन देखा जाता है।
2. प्रमुख कला केन्द्र — स्थलवार विवेचन
भीमबेटका (मध्य प्रदेश)
भीमबेटका रॉक शेल्टर्स भारतीय प्रागैतिहासिक कला के सबसे समृद्ध केंद्रों में से है। भोपाल के पास रायसेन जिले में स्थित ये आश्रय श्रेणी UNESCO विश्व-धरोहर का दर्जा भी प्राप्त है। यहां लगभग 700 से ज्यादा शैल आश्रय हैं जिनमें से लगभग 400 स्थान पर चित्रों के उदाहरण मिलते हैं। चित्रों के विषय में शिकार के दृश्य, सामूहिक नृत्य, युद्ध, पशु-चित्र और धार्मिक प्रतीक प्रमुख हैं। रंगों में गेरुआ (हेमैटाइट), सफेद (चूना), काला (कोयला) और कभी-कभी हरा/पीला देखा जाता है। चित्रों की बहु-स्तरीयता (multi-layering) यह दर्शाती है कि यहाँ पीढ़ियों तक चित्रांकन की परंपरा चली।
मिर्जापुर—सोनभद्र क्षेत्र (उत्तर प्रदेश)
विन्ध्याचल की गुफाएँ जैसे लिखुनिया, लोहरी भारतीय उत्तर-क्षेत्र में प्रागैतिहासिक चित्रों के प्रमुख उदाहरण हैं। यहाँ के चित्र अक्सर शिकारी-समूह, धनुष-भाले और सामुदायिक गतिविधियों को दिखाते हैं। रूपांकन साधारण रेखाचित्रात्मक है, पर गति व दिशा की अभिव्यक्ति स्पष्ट होती है।
पचमढ़ी, होशंगाबाद व महादान क्षेत्र (म.प्र.)
पचमढ़ी के आश्रयों में सामूहिक शिकार, नृत्य और दैनिक कृत्तियों के चित्र मिलते हैं। तकनीक और रंग पहलू भीमबेटका के समान हैं, पर स्थानीय शैलीगत भिन्नताएँ दिखाई देती हैं।
एडक्कल (केरल) तथा दक्षिणी स्थल
केरल के एडक्कल गुफ़ाएँ, कर्नाटक के हुलीगप्पा एवं दक्षिण-पूर्व के कुछ स्थल प्रतीकात्मक तथा ज्यामितीय आकृतियों के लिए प्रसिद्ध हैं। यहाँ की शैली अलग स्थानीय परंपराओं का प्रतिबिम्ब है और विषय में मिथकीय प्रतीक और मानव-प्राणी आकृतियाँ मिलती हैं।
लखुदियार (उत्तराखण्ड) व अन्य उत्तर-स्थल
लखुदियार क्षेत्र में विशेषकर नृत्यात्मक मानव आकृतियाँ मिलती हैं जो सामुदायिक उत्सवों की ओर संकेत करती हैं। उत्तरी क्षेत्रीय चित्रों में पतला, लम्बा मानव-फिगर और हल्का रेखाटन प्राय: देखा जाता है।
3. तकनीक, रंग और संसाधन
प्रागैतिहासिक चित्रों के निर्माण में प्रयुक्त प्रमुख तकनीकें और सामग्रियाँ निम्न हैं:
- रंग स्रोत: हेमैटाइट (लाल/गेरुआ), चूना (सफेद), कोयला/मैंगनीज (काला), स्थानीय ऑक्साइड्स और कुछ पौधों/खनिजों से पीला/हरा।
- बाइंडर: पक्षीय व पशु चरबी, गोंद या पौधों का रस—कभी-कभी इन्हें मिश्रित कर रंगों की स्थायित्व बढ़ायी गयी।
- उपकरण: उंगलियाँ, पंख, हड्डी-चप्पा, पत्थर की नोक और कच्चे ब्रश।
- सतह तैयारी: कुछ स्थलों में पत्थर की सतह को चिकना करते या चूना/मिट्टी की परत लगाकर चित्र बनाये गये।
- तकनीकें: fresco और secco जैसी विधियां—गीले पलस्तर पर रंग (कभी मिश्रित विधि) या सूखे पलस्तर पर काम।
4. विषय-वस्तु एवं उनकी व्याख्या
विषय-वस्तु से प्रागैतिहासिक समाज की जीवनशैली के कई पहलू उभरकर आते हैं:
- शिकार दृश्य: प्रमुख पशु—हिरण, भैस, हाथी, जंगली सूअर—जो भोजन व आर्थिक जीवन का आधार थे।
- नृत्य तथा सामुदायिक उत्सव: समूह-नृत्य और महिलाएँ/पुरुष मिलकर करते उत्सव प्राय: उल्लिखित हैं—ये सामाजिक समागम व अनुष्ठानिक गतिविधि का संकेत हैं।
- धार्मिक प्रतीक: सूर्य-चिह्न, हाथ के चिन्ह, वृत्त/वृक्ष जैसे प्रतीक संभवतः पूजा/संरक्षण या आश्रय-चिन्ह के रूप में उपयोग हुए।
- युद्ध और औزار: तीर-भाला, भाला आदि से विचारणीय समाजिक संरचना व सुरक्षा-प्रवाह का संकेत मिलता है।
5. सांस्कृतिक अर्थ और समाजशास्त्रीय निष्कर्ष
शैलचित्र बतलाते हैं कि प्रागैतिहासिक मानव केवल जीविकोपार्जन नहीं करता था, बल्कि सामूहिक रीतियों, मिथकों और सामाजिक व्यवहारों से बंधा हुआ था। नृत्य व शिकार के चित्र सामुदायिक ऐतिहासिक स्मृति और अवसरिक रीतियों के अभिलेख भी हो सकते हैं। चित्रों में बारम्बारता यह बताती है कि कुछ स्थल धार्मिक/समुदायिक केन्द्र रहे होंगे।
6. संरक्षण की चुनौतियाँ
इन चित्रों का संरक्षण प्रमुख समस्या है क्योंकि वे प्राकृतिक और मानवीय दोनों प्रकार के जोखिमों के अधीन हैं:
- प्राकृतिक क्षरण: वर्षा, ओलावृष्टि, तापमान परिवर्तन और जैविक वृद्धि (मॉस/लिचन) से रंग धुंधले होते हैं।
- मानव प्रभाव: स्पर्श, लिक्विड्स, गाइड-लाइटिंग, पर्यटक-लॉटर और अभद्र व्यवहार से क्षति।
- अयोग्य संरक्षण प्रयत्न: कुछ स्थानों पर रासायनिक प्रयोग ने और क्षति की।
संरक्षण के उपायों में नियंत्रित पर्यटन, डिजिटल दस्तावेज़ीकरण, स्थानीय समुदायों को शामिल करना और वैज्ञानिक गैर-आक्रामक संरक्षण तकनीक आवश्यक हैं।
7. शैक्षिक/परीक्षा-फोकस (Exam Focus)
उत्तर लिखते समय: स्थल-नाम + प्रमुख विषय/दृश्य + प्रयुक्त रंग/तकनीक — इस तीन-बिंदु फार्मेट से अंक प्रभावित होते हैं। उदाहरण: “भीमबेटका — शिकार व नृत्य दृश्य — गेरुआ/चूना रंग, बहु-स्तरीय ओवरपेंटिंग।”
8. निष्कर्ष
प्रागैतिहासिक कला केंद्र हमारे भूतकाल के जीवन, आस्था और सामुदायिक क्रियाकलापों के सजीव अभिलेख हैं। इन शैलचित्रों के माध्यम से हमें आदिम मानव की संवेदनशीलता, सामाजिक व्यवस्था और प्रकृति-निर्भर जीवन का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है। आज उन्हें संरक्षित रखना न सिर्फ़ सांस्कृतिक-इतिहास के प्रति हमारा कर्तव्य है, बल्कि ये आधुनिक कलाकारों और शोधार्थियों के लिए अमूल्य स्रोत बने रहते हैं।
गुफा / भित्ति चित्र परंपरा — विस्तृत अध्ययन
प्रागैतिहासिक से मध्यकाल तक भारत में विकसित दीवारचित्रकला — विषय, तकनीक, प्रमुख स्थल और संरक्षण।
परिचय
गुफा और भित्ति चित्र (Cave & Wall Paintings) किसी भी सभ्यता के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन के प्रत्यक्ष दस्तावेज़ होते हैं। भारत में यह परंपरा प्रागैतिहासिक काल से आरंभ होकर ऐतिहासिक और मध्यकालीन काल तक विकसित हुई — भीमबेटका जैसी शैलाशयों के शिकार-नृत्य दृश्य से लेकर अजंता की सूक्ष्म बौद्ध फ्रेस्को तक।
संक्षेप
गुफा/भित्ति चित्रों के माध्यम से हम आदिम मानव के शिकार, अनुष्ठान, सामुदायिक जीवन, धार्मिक कथाएँ तथा बाद के काल में साहित्यिक/धार्मिक प्रसंग — जैसे जातक कथाएँ — देख पाते हैं।
प्रमुख स्थल एवं उनका विवरण
1. भीमबेटका (मध्य प्रदेश)
भीमबेटका रॉक शेल्टर्स मध्य भारत का सबसे महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक कला-केंद्र है। यहाँ 700 से अधिक शैल-आश्रय पाए जाते हैं जिनमें सैकड़ों चित्र हैं। विषयवस्तु में शिकार, नृत्य, जौलुस, युद्ध और सामुदायिक अनुष्ठान प्रमुख हैं। रंगों में लाल (हेमैटाइट/गेरुआ), सफेद, काला और कभी-कभी हरा उपयोग हुआ है। इन चित्रों की समय-सीमा पाषाणयुग से लेकर ऐतिहासिक काल तक फैली है और कई परतों में चित्र देखने को मिलते हैं (पुराने चित्रों पर बाद के चित्र बने)।
2. अजंता (महाराष्ट्र)
अजंता के गुफाचित्र बौद्ध जीवन, जातक कथाएँ और बोधिसत्व-चित्रण के लिये प्रसिद्ध हैं। यहाँ की तकनीक अवलम्बित पलस्तर पर रंग (fresco/secco मिश्रित) है; रेखा-विशेषताएँ कोमल और रंगतः कोमल-सजीव हैं। अजंता के चित्रकला-शैली में मानवीय भावों, वस्त्रों और आभूषणों का सूक्ष्म चित्रण मिलता है।
3. एलोरा और एलीफेंटा (महाराष्ट्र)
एलोरा में हिन्दू-बौद्ध-जैन त्रिविधता के चित्र व शिल्प दोनों मिलते हैं; भित्ति चित्रों के साथ विशाल शिल्पात्मक नक्काशी भी महत्वपूर्ण है। एलीफेंटा में मुख्यत: शैलेय मूर्तिकला है पर वहाँ के शिव-विषयक शिल्प और अभिकल्पना का प्रभाविक चित्रण मिलता है।
4. सीत्तानवसल (तमिलनाडु)
सीत्तानवसल की भित्ति चित्रकला जैन धर्मीय प्रभाव दर्शाती है; यहाँ के चित्रों में सीमित रंगपटल और ज्यामितीय सजावट मिलती है। पारंपरिक स्थानीय रंग सतहों पर उपयोग किये गए हैं।
5. बाघ व जोगीमारा व दक्षिणी स्थलों का संक्षेप
बाघ (म.प्र.), जोगीमारा (छ.ग.) और दक्षिण भारतीय एडक्कल जैसे स्थल विविध शैलीगत दृष्टांत देते हैं — बाघ में गहरे रंग, जोगीमारा में लोकशैलीगत जीवंतता और एडक्कल में प्रतीकात्मक आकृतियाँ व ज्यामिति।
तकनीक और सामग्री
गुफा/भित्ति चित्रों में प्रयुक्त प्रमुख तकनीकें हैं:
- रंग स्रोत: प्राकृतिक खनिज—हेमैटाइट (लाल/गेरुआ), लिंडर/कोयला (काला), चूना (सफेद), स्थानीय ऑक्साइड्स (पीला/हरा)।
- फ्रेस्को तकनीक: गीले पलस्तर पर रंग लगाने की विधि — अजंता में दृश्य रूप से गीले व सूखे पटल का मिश्रण देखा जाता है।
- फ्रेस्को-सेक्को: सूखे पलस्तर पर रंग, बाद में ठीक-ठीक संवारने के लिए उपयोग।
- बाइंडर: पौधों का गोंद, पशु चरबी या शैवालिक पदार्थ कभी-कभी जोड़कर रंगों की स्थायित्वता बढ़ाई जाती थी।
शैलीगत लक्षण
- रेखांकन प्रधान चित्र, कभी-कभी सपाट फिलिंग (silhouette)।
- गतिशीलता दिखाने के लिये ओवरलैप और बार-बार आकृतियों का उपयोग।
- समयानुसार शैली में परिवर्तन — प्रागैतिहासिक सरलता से ऐतिहासिक काल में कथात्मक जटिलता तक।
कालक्रम और विकास
प्रागैतिहासिक चित्र (ऊपर-नीचे ~हजारों वर्ष) — शिकार व सामुदायिक दृश्य; ऐतिहासिक काल (गुप्त, वाकाटक इत्यादि) में बौद्ध कथात्मक चित्र (जैसे अजंता); मध्यकाल में मंदिर-वर्ती भित्ति चित्र तथा स्थानीय परम्पराएँ। यह विकास प्राकृतिक रंगों के प्रयोग से लेकर सूक्ष्म मानव अध्ययन और पौराणिक कथाओं के सजीव चित्रण की ओर होता है।
विषय-वस्तु का स्थानिक अर्थ
कुछ चित्र सामाजिक/आर्थिक संकेत देते हैं — शिकार दृश्य सामाजिक संगठन का, महिला-नृत्य धार्मिक उत्सव का तथा पशु चित्र अर्थव्यवस्था/वन्यजीवन की स्थिति का संकेत है। बाद के काल के पौराणिक दृश्यों में धार्मिक प्रचार और शिक्षण का लक्ष्य स्पष्ट होता है।
संरक्षण और चुनौतियाँ
गुफा-भित्ति चित्र प्राकृतिक क्षरण (वात, पानी) और मानवीय प्रभाव (पर्यटन-द्वारा क्षति, स्पर्श, वशिष्ट प्रदूषण) के कारण क्षति की ओर हैं। संरक्षण के उपायों में नियंत्रित दर्शन, डिजिटल दस्तावेजीकरण, गैर-आक्रामक संरक्षक तकनीकें और स्थानीय समुदायों को संरक्षण में शामिल करना आवश्यक है।
विशेष: कई विश्व विरासत स्थल (जैसे भीमबेटका, अजंता) पर संरक्षण हेतु स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर के नियम लागू हैं; पठन में इनका उल्लेख दिया जाना चाहिए।
